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हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो | शाही शायरी
hujum-e-dard ka itna baDhe asar gum ho

ग़ज़ल

हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
मिले वो रात कि जिस रात की सहर गुम हो

मज़ा तो जब है कि आवार्गान-ए-शौक़ के साथ
ग़ुबार बन के चले और रहगुज़र गुम हो

हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
इलाही यूँ तो किसी का न राहबर गुम हो

चले हैं हम भी चराग़-ए-नज़र जलाए हुए
ये रौशनी भी कहीं राह में अगर गुम हो

तलाश-ए-दोस्त है दिल को मगर ख़ुदा जाने
कहाँ कहाँ ये भटकता फिरे किधर गुम हो

चमन चमन हैं वो नश्व-ओ-नुमा के हंगामे
गुलों को ढूँडने जाए तो ख़ुद नज़र गुम हो

सुख़न की जान है हुस्न-ए-बयाँ मगर 'ताबाँ'
न यूँ कि लफ़्ज़ ही रह जाएँ फ़िक्र-ए-तर गुम हो