हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
मिले वो रात कि जिस रात की सहर गुम हो
मज़ा तो जब है कि आवार्गान-ए-शौक़ के साथ
ग़ुबार बन के चले और रहगुज़र गुम हो
हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
इलाही यूँ तो किसी का न राहबर गुम हो
चले हैं हम भी चराग़-ए-नज़र जलाए हुए
ये रौशनी भी कहीं राह में अगर गुम हो
तलाश-ए-दोस्त है दिल को मगर ख़ुदा जाने
कहाँ कहाँ ये भटकता फिरे किधर गुम हो
चमन चमन हैं वो नश्व-ओ-नुमा के हंगामे
गुलों को ढूँडने जाए तो ख़ुद नज़र गुम हो
सुख़न की जान है हुस्न-ए-बयाँ मगर 'ताबाँ'
न यूँ कि लफ़्ज़ ही रह जाएँ फ़िक्र-ए-तर गुम हो
ग़ज़ल
हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ