हुई न अक्स-ए-रुख़-ए-दर्द से नजात मिरी
बदल चुकी है कई आइने हयात मिरी
खुले थे होंट कि वो पास से गुज़र भी गया
बिखर के रह गई मौज-ए-हवा में बात मिरी
कभी सुकूत कभी क़हक़हे कभी आँसू
बदलती रहती है हर लम्हा काएनात मिरी
चलो ग़मों की किताबें सुपुर्द-ए-आब करें
वो कह रहा है कहानी है बे-सबात मिरी
सुलग रही है तिरे जिस्म की महक हर-सू
बदल गई है तिरे पैरहन से रात मिरी
लरज़ रहा था तलातुम में ज़र्द सा पत्ता
लिखी हुई थी समुंदर पे वारदात मिरी
न दब सकी कहीं 'राशिद' मिरे लहू की सदा
हर इक हुजूम में तन्हा रही है ज़ात मिरी

ग़ज़ल
हुई न अक्स-ए-रुख़-ए-दर्द से नजात मिरी
मुमताज़ राशिद