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हुई न अक्स-ए-रुख़-ए-दर्द से नजात मिरी | शाही शायरी
hui na aks-e-ruKH-e-dard se najat meri

ग़ज़ल

हुई न अक्स-ए-रुख़-ए-दर्द से नजात मिरी

मुमताज़ राशिद

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हुई न अक्स-ए-रुख़-ए-दर्द से नजात मिरी
बदल चुकी है कई आइने हयात मिरी

खुले थे होंट कि वो पास से गुज़र भी गया
बिखर के रह गई मौज-ए-हवा में बात मिरी

कभी सुकूत कभी क़हक़हे कभी आँसू
बदलती रहती है हर लम्हा काएनात मिरी

चलो ग़मों की किताबें सुपुर्द-ए-आब करें
वो कह रहा है कहानी है बे-सबात मिरी

सुलग रही है तिरे जिस्म की महक हर-सू
बदल गई है तिरे पैरहन से रात मिरी

लरज़ रहा था तलातुम में ज़र्द सा पत्ता
लिखी हुई थी समुंदर पे वारदात मिरी

न दब सकी कहीं 'राशिद' मिरे लहू की सदा
हर इक हुजूम में तन्हा रही है ज़ात मिरी