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हुए जब से मोहब्बत-आश्ना हम | शाही शायरी
hue jab se mohabbat-ashna hum

ग़ज़ल

हुए जब से मोहब्बत-आश्ना हम

रिफ़अत सुलतान

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हुए जब से मोहब्बत-आश्ना हम
नहीं लाते ज़बाँ पर मुद्दआ हम

सआ'दत है जो बन जाएँ जहाँ में
किसी मजबूर दिल का आसरा हम

चलाए तीर छुप-छुप कर जिन्हों ने
करेंगे उन के हक़ में भी दुआ हम

मिटेगा दाग़-ए-सज्दा कब जबीं से
ख़ुदा जाने बनेंगे कब ख़ुदा हम

हमारे दरमियाँ क्यूँ फ़ासले हैं
कभी सोचा न हम ने मिल के बाहम

ख़मोशी मस्लक-ए-साहब-दिलाँ है
किसी को भी नहीं कहते बुरा हम

हमारी रूह नग़्मा-ख़्वाँ रहेगी
फ़ना हो कर नहीं होंगे फ़ना हम

हमें है ए'तिमाद अपनी वफ़ा पर
नहीं करते किसी का भी गिला हम

ज़माना-साज़ निकले तुम तो क्या है
ज़रा सी बात को क्या दें हवा हम

अगर इज़्ज़त न दी अहल-ए-हरम ने
उठा लाएँगे अपना बोरिया हम

तसव्वुर भी नहीं बाक़ी ख़ुशी का
ग़म-ए-दुनिया में यूँ हैं मुब्तला हम

मुसलसल ख़ामुशी के बा'द 'रिफ़अत'
सर-ए-मक़्तल हुए हैं लब-कुशा हम