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हुए आज बूढ़े जवानी में क्या थे | शाही शायरी
hue aaj buDhe jawani mein kya the

ग़ज़ल

हुए आज बूढ़े जवानी में क्या थे

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

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हुए आज बूढ़े जवानी में क्या थे
जब उट्ठे थे ज़ानू से हाथ आश्ना थे

जहाँ की तो हर चीज़ में इक मज़ा था
न समझे कि किस शय के हम मुब्तला थे

न काफ़िर से ख़िलअत न ज़ाहिद से उल्फ़त
हम इक बज़्म में थे प सब से जुदा थे

न था मेरे जंगल में आज़ाद कोई
बगूले भी पाबंद-ए-ज़ुल्फ़-ए-हवा थे

मज़ार-ए-ग़रीबाँ तअस्सुफ़ की जा है
वो सोते हैं फिरते जो कल जा-ब-जा थे

बना कर बिगाड़ा हमें क्यूँ जहाँ में
ये सब हर्फ़ क्या सहव-ए-किल्क-ए-क़ज़ा थे

किए आख़िरी नाले दो-चार मैं ने
वही नाले बांग-ए-शिकस्त-ए-दरा थे

ख़ुदा जाने दुनिया में किस को थी राहत
'हवस' हम तो जीने से अपने ख़फ़ा थे