हुआ सरकश अंधेरा सख़्त-जाँ है
चराग़ों को मगर क्या क्या गुमाँ है
यक़ीं तो जोड़ देता है दिलों को
कोई शय और अपने दरमियाँ है
अभी से क्यूँ लहू रोने लगी आँख
पस-ए-मंज़र भी कोई इम्तिहाँ है
वही बे-फ़ैज़ रातों का तसलसुल
वही मैं और वही ख़्वाब-ए-गिराँ है
मिरे अंदर है अन-प्यासा किनारा
मिरे अतराफ़ इक दरिया रवाँ है
ग़ज़ल
हुआ सरकश अंधेरा सख़्त-जाँ है
शहनाज़ नबी