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होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम | शाही शायरी
hota nahin zauq-e-zindagi kam

ग़ज़ल

होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम

अहमद नदीम क़ासमी

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होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम
बुनियाद-ए-हयात है तिरा ग़म

एहसास-ए-जमाल उभर रहा है
जब से तिरा इल्तिफ़ात है कम

तेरे ही ग़मों ने मुझ को बख़्शी
कौंदे की लपक ग़ज़ाल का रम

सामान-ए-सबात हैं सफ़र में
उम्मीद की पेच राह के ख़म

शम्ओं' की लवें हैं या ज़बानें
आँसू हैं कि एहतिजाज-ए-पैहम

अंजुम से खिलाएगी शगूफ़े
शबनम से लदी हुई शब-ए-ग़म

तूफ़ान का मुंतज़िर खड़ा है
ये ऐन सहर को शब का आलम