होश खो कर जोश में कुछ इस तरह मैं बह गया
क्या मुझे कहना था उस से और क्या क्या कह गया
उस की जानिब देख कर आख़िर ये मुझ को क्या हुआ
एक सच होंटों पे मेरे आते आते रह गया
जो असासा ज़िंदगी का उस ने जोड़ा उम्र भर
मौत का सैलाब जब आया तो सब कुछ बह गया
ज़ुल्म की बुनियाद पर उस ने बनाया था महल
सब्र की बस एक ही ठोकर से वो भी ढह गया
तुम ने तो आँसू ही देखे हैं तुम्हें मालूम क्या
दर्द का दरिया मिरी आँखों से हो कर बह गया
दोस्ती क़ाएम रहे हर हाल में ये सोच कर
दोस्तों ने जो दिए वो ज़ख़्म हँस कर सह गया
ज़िंदगी ने हर क़दम पर ने'मतें तक़्सीम कीं
और 'साहिल' उम्र के ज़ेर-ओ-ज़बर में रह गया
ग़ज़ल
होश खो कर जोश में कुछ इस तरह मैं बह गया
मोहम्मद अली साहिल