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होंटों पर महसूस हुई है आँखों से मादूम रही है | शाही शायरी
honTon par mahsus hui hai aankhon se madum rahi hai

ग़ज़ल

होंटों पर महसूस हुई है आँखों से मादूम रही है

शाद आरफ़ी

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होंटों पर महसूस हुई है आँखों से मादूम रही है
फुलवारी की ''निगहत-दुल्हन' फुलवारी में घूम रही है

उस का आँचल और आवेज़े मेरा माथा चूम रही है
फिर भी चश्म-ए-बद-तीनत पुर-उल्फ़त ला-मालूम रही है

हर मय-कश की ज़ेहनी लग़्ज़िश इस मेहवर पर घूम रही है
जैसे वो सँभला बैठा है जैसे महफ़िल झूम रही है

चुनना है तो मुस्काने से पहले चुन लो कोई कली भी
गुलशन में खिलने से पहले तक बे-शक मासूम रही है

तुम इशरत से फ़ारिग़ हो कर मुझ से पूछो मैं वाक़िफ़ हूँ
किस किस बेचारे की ख़्वाहिश नग़्मों से महरूम रही है

इस से उस से मेरी बाबत रोज़ाना सरगोशी यानी
बनते क्यूँ हो मेरी हालत तुम को भी मालूम रही है

पीने वालों के कहने से ग़म से छुटकारा पाने को
पी कर भी मेरी तन्हाई मायूस ओ मग़्मूम रही है

आरिज़ आरिज़ सुब्ह-ए-बहाराँ गेसू गेसू शाम-ए-नशेमन
वो क्या जाने जिस की ग़फ़लत जल्वों से महरूम रही है

मैं तख़ईली नख़लिस्ताँ में आँखें बंद किए बैठा हूँ
मेरी मुस्तक़बिल-अंदेशी मंज़िल मंज़िल घूम रही है

वर्ना सीधे-सादे सज्दे वर्ना सीधी-सादी हमदें
दुनिया क्या और क्यूँ के हाथों भारी पत्थर चूम रही है

हमदर्दी के मुँह पर फ़न की आँखें खुलती हैं ऐ 'शाद'
गोया इंसानी हमदर्दी शाएर का मक़्सूम रही है