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होंट खुलें तो निकले वाह | शाही शायरी
honT khulen to nikle wah

ग़ज़ल

होंट खुलें तो निकले वाह

उबैद सिद्दीक़ी

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होंट खुलें तो निकले वाह
दुनिया एक तमाशा-गाह

रश्क-ए-फ़लक है ये बस्ती
हर चेहरा है महर ओ माह

अब के हाथ वो खेला है
दाँव पर हैं इज़्ज़-ओ-जाह

रंग बहुत से और भी हैं
हर शय कब है सफ़ेद ओ सियाह

साथ किसी को चलना है
सूझ गई है मुझ को राह

अब के बहार की यूरिश है
गुल-बूटे हैं उस की सिपाह

पागल हैं जो सहरा से
माँग रहे हैं आब ओ गियाह

काम हज़ारों करने हैं
क्या क्या रक्खें पेश-ए-निगाह

उस की आमद आमद है
दिल आँखें हैं चश्म-ब-राह

गर्मी सी ये गर्मी है
माँग रहे हैं लोग पनाह