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हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत | शाही शायरी
ho gar aise hi meri shakl se bezar bahut

ग़ज़ल

हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत

क़ाएम चाँदपुरी

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हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
तुम सलामत रहो बंदे के ख़रीदार बहुत

हम-दिगर जब ख़फ़गी आई तो झगड़ा क्या है
तुम को ख़्वाहिंदा बहुत हम को तरह-दार बहुत

आज के रोने में जी डूब चला था लेकिन
नाला-ए-दिल ने रखा मुझ को ख़बर-दार बहुत

शैख़ मुझ को न डरा गोर के अँधियारे से
हिज्र की काटी हैं मैं ने तो शब-ए-तार बहुत

देखिए अब की तब-ए-इश्क़ से क्यूँकर बीते
ग़ालिब आया है तबीअत पे ये आज़ार बहुत

सच कहो क़त्ल पे किस के ये कमर बाँधी है
इन दिनों हाथ में तुम रखते हो तलवार बहुत

'क़ाएम' आता है मुझे रहम जवानी पे तिरी
मर चुके हैं इसी आज़ार के बीमार बहुत