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हो चुका जो कि मुक़द्दर में था दरमाँ होना | शाही शायरी
ho chuka jo ki muqaddar mein tha darman hona

ग़ज़ल

हो चुका जो कि मुक़द्दर में था दरमाँ होना

मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी

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हो चुका जो कि मुक़द्दर में था दरमाँ होना
अब तिरे हाथ है मुश्किल मिरी आसाँ होना

था जो मक़्सूम में शर्मिंदा-ए-एहसाँ होना
ग़ैर के हाथ रहा दफ़्न का सामाँ होना

हुस्न का इश्क़ की वादी में नुमायाँ होना
रम्ज़ था दिन को सर-ए-तूर चराग़ाँ होना

लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जराहत तो मिरे दिल से न पूछ
पहलू-ए-ज़ख़्म में लाज़िम था नमक-दाँ होना

इक क़यामत का समाँ था तिरा ऐ सुब्ह-ए-वतन
पर्दा-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ का नुमायाँ होना

ख़ाना-बर्बादियाँ हर सम्त से घेरे हैं मुझे
दर-ओ-दीवार प लिक्खा है बयाबाँ होना

इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत में न जाने क्या हो
क़हर का सामना है तेग़ का उर्यां होना

आ रही हैं ये उमीदों की सदाएँ पैहम
गो सफ़र सख़्त है लेकिन न हिरासाँ होना

मेरी तुर्बत भी बनी ऐसी ज़मीं पे 'आलिम'
जिस की तक़दीर में लिक्खा था बयाबाँ होना