हिसार-ए-क़र्या-ए-खूँबार से निकलते हुए 
ये दिल मलूल था आज़ार से निकलते हुए 
बड़ी ही देर तलक धूप मुझ को छू न सकी 
तुम्हारे साया-ए-दीवार से निकलते हुए 
कि फिर से तख़्त को आना था मेरे क़दमों में 
मैं पुर-यक़ीन था दरबार से निकलते हुए 
शुआ-ए-नूर के फूटे से जाँ लरज़ती थी 
तुम्हारी गर्मी-ए-रुख़्सार से निकलते हुए 
तुम्हारे ध्यान में गुम हो गई थी महकी हवा 
हुदूद-ए-जादा-ए-गुलज़ार से निकलते हुए 
मैं लौट आया तुझे छोड़ कर मगर आधा 
वहीं रहा दर-ओ-दीवार से निकलते हुए 
फ़ज़ा में देर तलक ख़ूब जगमगाते 'शुमार' 
वो लफ़्ज़ शोख़ी-ए-गुफ़्तार से निकलते हुए
        ग़ज़ल
हिसार-ए-क़र्या-ए-खूँबार से निकलते हुए
अख्तर शुमार

