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हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था | शाही शायरी
hisar-e-maqtal-e-jaan mein lahu lahu main tha

ग़ज़ल

हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था

आलमताब तिश्ना

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हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था
रसन रसन मिरी वहशत गुलू गुलू मैं था

जो रह गया निगह-ए-सोज़न-ए-मशिय्यत से
क़बा-ए-ज़ीस्त का वो चाक-ए-बे-रफ़ू मैं था

ज़माना हँसता रहा मेरी ख़ुद-कलामी पर
तिरे ख़याल से मसरूफ़-ए-गु्फ़्तुगू मैं था

था आइने में शिकस्त-ए-ग़ुरूर-ए-यकताई
कि अपने अक्स के पर्दे में हू-ब-हू मैं था

तू अपनी ज़ात के हर पेच-ओ-ख़म से पूछ के देख
क़दम क़दम मिरी आहट थी कू-ब-कू मैं था

हर एक वादी-ओ-कोहसार से गुज़रता हुआ
जो आबशार बना था वो आबजू मैं था

ख़ुतन ख़ुतन थी शलंग-ए-ग़ज़ाल मेरे लिए
बदन बदन मिरा नश्शा सुबू सुबू मैं था

तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
मैं तेरी ज़ात में पिन्हाँ था और तू मैं था

मआल-ए-उम्र-ए-मोहब्बत है बस यही 'तिश्ना'
मिरी तलाश था वो उस की जुस्तुजू मैं था