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हिसाब-ए-दोस्ताँ दर-दिल नहीं अब | शाही शायरी
hisab-e-dostan dar-dil nahin ab

ग़ज़ल

हिसाब-ए-दोस्ताँ दर-दिल नहीं अब

उज़ैर रहमान

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हिसाब-ए-दोस्ताँ दर-दिल नहीं अब
पलटना बातों से मुश्किल नहीं अब

किया करते थे जो जाँ भी निछावर
भरोसे के भी वो क़ाबिल नहीं अब

समुंदर की हदें बढ़ने लगी हैं
नज़र आता कहीं साहिल नहीं अब

रहे थे जो शरीक-ए-ग़म शब-ओ-रोज़
ख़ुशी देखी तो वो शामिल नहीं अब

क़हर ढाता रहा जो हुस्न-ए-जानाँ
बहुत अफ़्सोस वो क़ातिल नहीं अब

बुराई करना ला-हासिल है लगता
सुनें दो कान जो फ़ाज़िल नहीं अब

बनें बेहतर भी अब इंसान कैसे
बनाने को वो आब-ओ-गिल नहीं अब

भला तय भी हो ये रस्ता तो कैसे
निगाहों में कोई मंज़िल नहीं अब

तसाहुल छोड़िए वक़्त-ए-अमल है
गुज़र पाएगी यूँ काहिल नहीं अब

करें क्या ज़िंदगी क़ुर्बान उस पर
रहा जो ज़ीस्त का हासिल नहीं अब