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हिज्र में ग़म की चढ़ाई है इलाही तौबा | शाही शायरी
hijr mein gham ki chaDhai hai ilahi tauba

ग़ज़ल

हिज्र में ग़म की चढ़ाई है इलाही तौबा

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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हिज्र में ग़म की चढ़ाई है इलाही तौबा
क्या नसीबे की बुराई है इलाही तौबा

कितने कानों के वो कच्चे हैं कि अल्लाह की पनाह
क्या रक़ीबों की बन आई है इलाही तौबा

नाला हो आह हो फ़रियाद हो या ज़ारी हो
यार तक सब की रसाई है इलाही तौबा

हो चुका क़त्ल जहाँ तेग़ भी उठने की नहीं
किस क़दर नर्म कलाई है इलाही तौबा

शैख़-साहिब भी नहीं बच के यहाँ से निकले
किस क़दर उन को पिलाई है इलाही तौबा

दिल-लगी आप से की ख़ल्क़ में बदनाम हुए
नेक-नामी ये कमाई है इलाही तौबा

चाह कर तुम को भला और को क्यूँकर चाहूँ
वाह क्या दिल में समाई है इलाही तौबा

ले गए छीन के दिल मैल नहीं चितवन पर
कितनी दीदा में सफ़ाई है इलाही तौबा

बोसा माँगा तो कहा शुक्र-ए-ख़ुदा अच्छा हूँ
बात क्या जल्द उड़ाई है इलाही तौबा

नहीं मा'लूम कि किस शख़्स का मुँह देखा है
आज फिर ग़म की चढ़ाई है इलाही तौबा

कूचा-ए-इश्क़ की सच पूछो तो हम ने 'परवीं'
किस क़दर ख़ाक उड़ाई है इलाही तौबा