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हिज्र बना आज़ार सफ़र कैसे कटता | शाही शायरी
hijr bana aazar safar kaise kaTta

ग़ज़ल

हिज्र बना आज़ार सफ़र कैसे कटता

अली अकबर मंसूर

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हिज्र बना आज़ार सफ़र कैसे कटता
इश्क़ के रोग हज़ार सफ़र कैसे कटता

धूप का बोझ सरों पर आख़िर आन गिरा
ख़त्म हुए अश्जार सफ़र कैसे कटता

क्या बतलाएँ अपनी ख़ाली झोली में
साँसें थीं दो-चार सफ़र कैसे कटता

देखते देखते नज़रों से मादूम हुए
रस्तों के आसार सफ़र कैसे कटता

पीछे बेहिस दिन के ख़ौफ़ था और आगे
रात की थी दीवार सफ़र कैसे कटता

अपना बोझ उठा कर अपने काँधों पर
चलना था दुश्वार सफ़र कैसे कटता

आँखें थीं वीरान नज़र कैसे आता
दिल तो था बीमार सफ़र कैसे कटता

नंगे पाँव धूप में चलते रहने की
कोशिश थी बेकार सफ़र कैसे कटता

कुछ तो जज़ीरे बीनाई से ओझल थे
नाव थी बे-पतवार सफ़र कैसे कटता

इक दूजे के संग अड़ी थीं सब कूजें
टूट गई फिर डार सफ़र कैसे कटता