हज़ारों रंज मिले सैंकड़ों मलाल मिले
हम अपने आप से जब भी मिले निढाल मिले
हर एक शख़्स से मिलना कहाँ मुनासिब था
मिले उन्हीं से जहाँ दिल मिले ख़याल मिले
वफ़ा की राह में किस पर न तोहमतें आईं
कोई तो ऐसी ज़माने में इक मिसाल मिले
नहीं है तेरे जहाँ में कोई भी शय ऐसी
जिसे उरूज मिले और न फिर ज़वाल मिले
मैं अपने आप से बाहर निकल नहीं पाया
जो तू मिला तो मुझे मेरे हाल-चाल मिले
जवाब ढूँडने निकला जो कल मिरा माज़ी
लबों पे हाल के इस को नए सवाल मिले
मिरी तलाश जहाँ जा के ख़त्म हो 'सालिम'
कहीं तो ऐसा कोई साहब-ए-कमाल मिले
ग़ज़ल
हज़ारों रंज मिले सैंकड़ों मलाल मिले
सलीम शुजाअ अंसारी