हज़ार शुक्र कभी तेरा आसरा न गया 
मगर ये है दिल-ए-आदम कि वसवसा न गया 
वो जब कि ज़ीस्त भी इक फ़न थी वो ज़माना गया 
अब एक चीख़ कि अंदाज़-ए-शाइ'राना गया 
बहुत ही शोर था अहल जुनूँ का पर अब के 
ख़िरद से आ के कोई ज़ोर आज़मा न गया 
चली है अब के बरस वो हवा-ए-शिद्दत-ए-बर्फ़ 
दयार-ए-दिल की तरफ़ कोई क़ाफ़िला न गया 
बहुत ही सस्ती है बाज़ार-ए-जाँ में जिंस-ए-वफ़ा 
अरे ये क़हत-तलब दिल का कारख़ाना गया 
मैं तोड़ तोड़ के ख़ुद को बनाता रहता हूँ 
अब एक उम्र हुई फिर भी बचपना न गया 
बस एक घूँट मोहब्बत का पी के पछताए 
तमाम उम्र वो इक तल्ख़ ज़ाइक़ा न गया 
कभी बिखर गए बातों में मिस्ल-ए-निगहत-ए-गुल 
कभी कली की तरह मुँह से कुछ कहा न गया 
गुमान ये था कि बस दो-क़दम है उस की गली 
क़दम उठे तो यही दो-क़दम चला न गया 
मैं एक बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-दीदा हूँ ज़मीन का बोझ 
हवा-ए-दहर तिरे दोश पर उड़ा न गया 
ब-रंग-ए-गुल रहे हम भी मिज़ाज-दान-ए-बहार 
बस एक बार हँसे फिर कभी हँसा न गया 
अब आओ दिन की कहानी लिखें कोई 'बाक़र' 
कि रात ख़त्म हुई रात का फ़साना गया
        ग़ज़ल
हज़ार शुक्र कभी तेरा आसरा न गया
सज्जाद बाक़र रिज़वी

