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हयात-ए-इश्क़ की ख़ुर्शीद-सामानी नहीं जाती | शाही शायरी
hayat-e-ishq ki KHurshid-samani nahin jati

ग़ज़ल

हयात-ए-इश्क़ की ख़ुर्शीद-सामानी नहीं जाती

रईस नियाज़ी

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हयात-ए-इश्क़ की ख़ुर्शीद-सामानी नहीं जाती
मिटा जाता है दिल ज़र्रों की ताबानी नहीं जाती

जो कल तक खेल समझे थे हमें बर्बाद कर देना
अब उन मग़रूर नज़रों की पशेमानी नहीं जाती

हमीं पर लुत्फ़ की बारिश है लेकिन वाए-नादानी
हमीं से वो निगाह-ए-लुत्फ़ पहचानी नहीं जाती

वतन क्या जुरअत-ए-अहल-ए-जुनूँ से हो गया ख़ाली
ख़िरद की क़ुव्वत-ए-तज्दीद-ए-वीरानी नहीं जाती

बहार आई खिले ग़ुंचे मगर ऐ नाज़िम-ए-गुलशन
हमारे आशियाँ की शो'ला-सामानी नहीं जाती

मिरी सहबा की अज़्मत सिर्फ़ अहल-ए-दिल समझते हैं
पिए जाता हूँ लेकिन पाक-दामानी नहीं जाती

ये किस काफ़िर-अदा का जल्वा-ए-मासूम देखा है
'रईस' अब तक मिरी नज़रों की हैरानी नहीं जाती