हया भी आँख में वारफ़्तगी भी 
बदन में प्यास लब पर ख़ामुशी भी 
दरीचे बंद हों अच्छा है लेकिन 
ज़रूरी है हवा भी रौशनी भी 
मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोइयों से 
समझ लेता हूँ तेरी अन-कही भी 
पहन लें लम्स की आँचें किसी दिन 
पिघल जाए ये हद्द-ए-आख़िरी भी 
किया करती है सज्दे मुझ को ठोकर 
मुक़द्दस है मिरी आवारगी भी 
तुम्हें खो कर भी तुम को पा चुका हूँ 
मिरा हासिल मिरी ला-हासिली भी 
यही इक मोड़ तक आना बिछड़ना 
यही क़िस्मत तुम्हारी भी मिरी भी
        ग़ज़ल
हया भी आँख में वारफ़्तगी भी
सुलेमान ख़ुमार

