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हवा ने सीने में ख़ंजर छुपा के रक्खा है | शाही शायरी
hawa ne sine mein KHanjar chhupa ke rakkha hai

ग़ज़ल

हवा ने सीने में ख़ंजर छुपा के रक्खा है

साहिबा शहरयार

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हवा ने सीने में ख़ंजर छुपा के रक्खा है
ये देखना है कि अब वार किस पे करता है

ख़बर ये आम है फिर भी ये कैसा पर्दा है
कि टूटा आइना उस ने सँभाल रक्खा है

ज़बाँ भी चुप है फ़ज़ा पर है ख़ामुशी तारी
है किस का ख़ौफ़ तुझे क्यूँ किसी से डरता है

तुम्हारे पाँव के नीचे कहीं ज़मीं ही नहीं
सफ़र का कर के तू कैसे इरादा बैठा है

हुई है शाम दरीचों पे चाँद चमके है
है किस का साया जो शब भर सिसकता रहता है

कहाँ कहाँ न परिंदों ने पँख फैलाए
मगर ये क्या कि किसी शाख़ पर ठिकाना है