हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा
मुझे ख़बर न हो सकी प साथ साथ मैं भी था
चमकते नूर के दिनों में तेरे आस्ताँ से दूर
वो मैं कि आफ़्ताब की सफ़ेद शाख़ पर खिला
हिजाब आ गया था मुझ को दिल के इज़्तिराब पर
यही सबब है तेरे दर पे लौट कर न आ सका
वो किस मकाँ की धूप थी, गली गली में भर गई
वो कौन सब्ज़ा-रुख़ था जो कि मोम सा पिघल गया
कभी तो चल के देखो साए पीपलों के देस के
जहाँ लड़कपना हमारे हाथ से जुदा हुआ
ग़ज़ल
हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा
अली अकबर नातिक़