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हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है | शाही शायरी
hawa ke dosh pe baadal ki mushk Khaali hai

ग़ज़ल

हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है

शारिब मौरान्वी

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हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है
जो सब को बाँटता फिरता था ख़ुद सवाली है

किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द
कहीं पे शाम-ए-ग़रीबाँ कहीं दिवाली है

तुम्हारे सामने कैसे ज़बाँ को जुम्बिश दें
तुम्हारे शहर में सच बोलना भी गाली है