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दिए का रुख़ बदलता जा रहा है | शाही शायरी
hawa ka ruKH badalta ja raha hai

ग़ज़ल

दिए का रुख़ बदलता जा रहा है

अमित शर्मा मीत

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दिए का रुख़ बदलता जा रहा है
हवा के साथ जलता जा रहा है

तुम्हारे हिज्र की इस आँच में अब
हमारा दिल पिघलता जा रहा है

तड़प उट्ठी है मेरी रूह फिर से
बदन से तू निकलता जा रहा है

निकालो अब मिरे घर से ही मुझ को
ये सन्नाटा निगलता जा रहा है

क़फ़स में क़ैद इक पंछी के जैसे
मिरा किरदार ढलता जा रहा है

हमारा हिज्र भी अब मसअला बन
ज़माने में उछलता जा रहा है

उसे एहसास है क्या 'मीत' वो अब
मिरे अरमाँ कुचलता जा रहा है