EN اردو
हवा-ए-हिर्स-ओ-हवस से मफ़र भी करना है | शाही शायरी
hawa-e-hirs-o-hawas se mafar bhi karna hai

ग़ज़ल

हवा-ए-हिर्स-ओ-हवस से मफ़र भी करना है

अरशद अब्दुल हमीद

;

हवा-ए-हिर्स-ओ-हवस से मफ़र भी करना है
इसी दरख़्त के साए में घर भी करना है

अना ही दोस्त अना ही हरीफ़ है मेरी
इसी से जंग इसी को सिपर भी करना है

चल आ तुझे किसी महफ़ूज़ घर में पहुँचा दूँ
फिर इस के बाद मुझे तो सफ़र भी करना है

यही नहीं कि पहुँचना है आसमानों पर
दुआ-ए-वस्ल तुझे अब असर भी करना है

हमें तो शम्अ के दोनों सिरे जलाने हैं
ग़ज़ल भी कहनी है शब को बसर भी करना है