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हटा के मेज़ से इक रोज़ आईना मैं ने | शाही शायरी
haTa ke mez se ek roz aaina maine

ग़ज़ल

हटा के मेज़ से इक रोज़ आईना मैं ने

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

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हटा के मेज़ से इक रोज़ आईना मैं ने
फिर अपने-आप से रक्खा न वास्ता मैं ने

जब अपने-आप से पहचान अपनी खो के मिली
तो ख़ुद ही काट दिया अपना रास्ता मैं ने

मैं कम-सिनी में भी गुड़िया कभी नहीं खेली
पलों में तय किया बरसों का फ़ासला मैं ने

चराग़ हूँ मुझे जब धूप रास आ न सकी
तो ख़ुद सिकोड़ लिया अपना दायरा मैं ने

मैं अपने आप में हूँ या नहीं, कभी अपना
किसी को ठीक बताया नहीं पता मैं ने

अजीब क्या जो बिखेरा नहीं समेट के फिर
तमाम उम्र उमीदों का सिलसिला मैं ने