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हसरत-ए-सिक्का-ए-बख़ील न कर | शाही शायरी
hasrat-e-sikka-e-baKHil na kar

ग़ज़ल

हसरत-ए-सिक्का-ए-बख़ील न कर

रम्ज़ अज़ीमाबादी

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हसरत-ए-सिक्का-ए-बख़ील न कर
अपने कश्कोल को ज़लील न कर

कुछ न बोलेंगे मुद्दई' के ख़िलाफ़
दोस्तों को कभी वकील न कर

बहस जारी रहे तो बेहतर है
मेरे दा'वे को बे-दलील न कर

मैं फ़रासत-गज़ीदगी का शिकार
मुझ को फ़र्ज़ाना-ओ-अक़ील न कर

हाथ ऊँचा रहे कुशादा रहे
जेब को कीसा-ए-बख़ील न कर

कोई हद है तिरी ज़रूरत की
ज़िंदगी यूँ मुझे ज़लील न कर

'रम्ज़' क़ैद-ए-हयात झेल अभी
इतनी उजलत मिरे ख़लील न कर