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हसीनों के सितम को मेहरबानी कौन कहता है | शाही शायरी
hasinon ke sitam ko mehrbani kaun kahta hai

ग़ज़ल

हसीनों के सितम को मेहरबानी कौन कहता है

अर्श मलसियानी

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हसीनों के सितम को मेहरबानी कौन कहता है
अदावत को मोहब्बत की निशानी कौन कहता है

ये है इक वाक़ई तफ़्सील मेरी आप-बीती की
बयान-ए-दर्द-ए-दिल को इक कहानी कौन कहता है

यहाँ हर-दम नए जल्वे यहाँ हर-दम नए मंज़र
ये दुनिया है नई इस को पुरानी कौन कहता है

तुझे जिस का नशा हर-दम लिए फिरता है जन्नत में
बता ऐ शैख़ उस कौसर को पानी कौन कहता है

तरीक़ा ये भी है इक इम्तिहान-ए-जज़्बा-ए-दिल का
तुम्हारी बे-रुख़ी को बद-गुमानी कौन कहता है

बला है क़हर है आफ़त है फ़ित्ना है क़यामत का
हसीनों की जवानी को जवानी कौन कहता है

फ़ना हो कर भी हासिल है वही रंग-ए-बक़ा उस का
हमारी हस्ती-ए-फ़ानी को फ़ानी कौन कहता है

हज़ारों रंज इस में 'अर्श' लाखों कुल्फ़तें इस में
मोहब्बत को सुरूद-ए-ज़िंदगानी कौन कहता है