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हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया | शाही शायरी
harim-e-dil, ki sar-ba-sar jo raushni se bhar gaya

ग़ज़ल

हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया

अली अकबर नातिक़

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हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया
किसे ख़बर, मैं किन दियों की राह से गुज़र गया

ग़ुबार-ए-शहर में उसे न ढूँड जो ख़िज़ाँ की शब
हवा की राह से मिला, हवा की राह पर गया

तिरे नवाह में रहा मगर मियान-ए-दीन-ओ-दिल
गजर बजा तो जी उठा, सुनी अज़ाँ तो मर गया

सफ़ेद पत्थरों के घर, घरों में तीरगी के ग़म
हज़ार ग़म का एक ये कि तू भी बे-ख़बर गया

नगर हैं आफ़्ताब के, बरहना गुम्बदों के सर
सरों पे नूर के कलस, मैं नूर में उतर गया