EN اردو
हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी | शाही शायरी
haram ka aaina barson se dhundla bhi hai hairan bhi

ग़ज़ल

हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी

अज़ीज़ हामिद मदनी

;

हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी
इक अफ़्सून-ए-बरहमन है कि पैदा भी है पिन्हाँ भी

न जा ऐ नाख़ुदा दरिया की आहिस्ता-ख़िरामी पर
इसी दरिया में ख़्वाबीदा है मौज-ए-तुंद जौलाँ भी

कमाल-ए-जाँ-निसारी हो गई है ख़ाक परवाना
उसे इक्सीर भी कहते हैं और ख़ाक-ए-परेशाँ भी

विदा-ए-शब भी है और शम्अ' पर इक बाँकपन भी है
हदीस-ए-शौक़ भी है क़िस्सा-ए-उम्र-ए-गुरेज़ाँ भी

न आई याद तेरी ये भी मौसम का तग़य्युर था
ये कुश्त-ए-शौक़ थी परवर्दा-हा-ए-बाद-ओ-बाराँ भी

ये दुनिया है तो क्या ऐ हम-नफ़स तफ़सीर-ए-ग़म कीजे
वही आदाब-ए-महफ़िल भी वही आदाब-ए-ज़िंदाँ भी

शुआ-ए-मेहर है या इल्तिज़ाम-ए-ज़ख़्म-ओ-मरहम है
ये दाग़-ए-लाला भी है शो'ला-ए-ला'ल-ए-बदख़्शाँ भी