हर ज़र्रा गुल-फ़िशाँ है नज़र चूर चूर है
निकले हैं मय-कदे से तो चेहरे पे नूर है
हाँ तू कहे तो जान की परवा नहीं मुझे
यूँ ज़िंदगी से मुझ को मोहब्बत ज़रूर है
अब ऐ हवा-ए-चर्ख़-ए-कुहन तेरी ख़ैर हो
उठने को इस ज़मीन से शोर-ए-नुशूर है
अपना जो बस चले तो तुझे तुझ से माँग लें
पर क्या करें कि इश्क़ की फ़ितरत ग़यूर है
नाज़ुक था आब-गीना-ए-दिल टूट ही गया
तू अब न हो मलूल तिरा क्या क़ुसूर है
आरिज़ पे तेरे मेरी मोहब्बत की सुर्ख़ियाँ
मेरी जबीं पे तेरी वफ़ा का ग़ुरूर है

ग़ज़ल
हर ज़र्रा गुल-फ़िशाँ है नज़र चूर चूर है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी