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हर तरफ़ कर्ब के मंज़र हैं जिधर जाता हूँ | शाही शायरी
har taraf karb ke manzar hain jidhar jata hun

ग़ज़ल

हर तरफ़ कर्ब के मंज़र हैं जिधर जाता हूँ

क़ासिम नियाज़ी

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हर तरफ़ कर्ब के मंज़र हैं जिधर जाता हूँ
लम्हा लम्हा कभी जीता कभी मर जाता हूँ

बद-गुमाँ ऐसा हुआ हूँ मैं फ़रेबों से तिरे
सच भी जब सामने आता है तो डर जाता हूँ

इंतिक़ामन ये रविश मैं ने भी अपनाई है
जब मुकरता है कोई मैं भी मुकर जाता हूँ

धूप सह लेने की आदत ने ये जुरअत बख़्शी
सर पे सूरज को उठाए में गुज़र जाता हूँ

आइना बन गया हमराज़ 'नियाज़ी' जब से
अपने चेहरे को मैं ख़ुद देख के डर जाता हूँ