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हर शय लम्हे की मेहमाँ है क्या गुल क्या ख़ुशबू | शाही शायरी
har shai lamhe ki mehman hai kya gul kya KHushbu

ग़ज़ल

हर शय लम्हे की मेहमाँ है क्या गुल क्या ख़ुशबू

मंज़ूर आरिफ़

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हर शय लम्हे की मेहमाँ है क्या गुल क्या ख़ुशबू
क्या मय क्या नश्शा-ए-आईना क्या आईना-रू

मोरनी की ये ख़्वाहिश वज्द में आ कर नाचे मोर
प्यास बुझाने को दे दे बस दो क़तरे आँसू

क्या था वो लम्हों की रिफ़ाक़त हो गई ख़्वाब-ओ-ख़याल
तुझ बिन सारी उम्र रहा ख़ाली मेरा पहलू

ज़ेहनी रिश्ते कलबी नाते सब अग़राज़-पसंद
सब लम्हों के जादूगर हैं क्या मैं और क्या तू

'आरिफ़' क्या तदबीर हो उस को कैसे राम करूँ
मैं इक ख़ाली हाथ शिकारी वो इक तेज़ आहू