EN اردو
हर शब ख़याल-ए-ग़ैर के मारे अलग-थलग | शाही शायरी
har shab KHayal-e-ghair ke mare alag-thalag

ग़ज़ल

हर शब ख़याल-ए-ग़ैर के मारे अलग-थलग

शाद लखनवी

;

हर शब ख़याल-ए-ग़ैर के मारे अलग-थलग
आते हैं ख़्वाब में वो हमारे अलग-थलग

गर ग़ैर साथ साए के सूरत न था तो क्यूँ
मिस्ल-ए-सबा चमन से सिधारे अलग-थलग

बुलबुल वो हूँ कि फ़स्ल के पहले ही बाग़बाँ
लेता है बाग़ जिस का इजारे अलग-थलग

दाम-ए-बला में फँसते हैं आप आ के सैकड़ों
वो बुत हज़ार बाल सँवारे अलग-थलग

ऐ गुल तुझे किसी की न मुतलक़ ख़बर हुई
ग़ुंचे चटक चटक के पुकारे अलग-थलग

ख़ल्वत में भी जो आए हैं जल्वत का ज़िक्र क्या
बैठे हुए हैं शर्म के मारे अलग-थलग

पेश-ए-नज़र शबीह-ए-ख़याली है अपनी 'शाद'
नक़्शे जमे हुए हैं हमारे अलग-थलग