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हर ख़ार इनायत था हर इक संग सिला था | शाही शायरी
har Khaar inayat tha har ek sang sila tha

ग़ज़ल

हर ख़ार इनायत था हर इक संग सिला था

ज़ेहरा निगाह

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हर ख़ार इनायत था हर इक संग सिला था
इस राह में हर ज़ख़्म हमें राह-नुमा था

क्यूँ घिर के अब आए हैं ये बादल ये घटाएँ
हम ने तो तुझे देर हुई याद किया था

ऐ शीशागरो कुछ तो करो आइना-ख़ाना
रंगों से ख़फ़ा रुख़ से जुदा यूँ न हुआ था

इन आँखों से क्यूँ सुब्ह का सूरज है गुरेज़ाँ
जिन आँखों ने रातों में सितारों को चुना था