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हर इक शय पर बहार-ए-ज़िंदगी महसूस करता हूँ | शाही शायरी
har ek shai par bahaar-e-zindagi mahsus karta hun

ग़ज़ल

हर इक शय पर बहार-ए-ज़िंदगी महसूस करता हूँ

ऐश बर्नी

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हर इक शय पर बहार-ए-ज़िंदगी महसूस करता हूँ
मगर बा-ईं-हमा तेरी कमी महसूस करता हूँ

भटक कर भी कभी मंज़िल से बेगाना नहीं होता
किसी की ग़ाएबाना रहबरी महसूस करता हूँ

मैं अपने दिल पे रख लेता हूँ तोहमत बद-गुमानी की
अगर तेरी तरफ़ से बे-रुख़ी महसूस करता हूँ

ये दुनिया अजनबी पहले भी थी और अब भी है लेकिन
अब अपने आप को भी अजनबी महसूस करता हूँ

तुम्हें इस बात का अंदाज़ा शायद हो नहीं सकता
कि तुम को देख कि कितनी ख़ुशी महसूस करता हूँ