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हर इक दाग़-ए-दिल शम्अ' साँ देखता हूँ | शाही शायरी
har ek dagh-e-dil shama san dekhta hun

ग़ज़ल

हर इक दाग़-ए-दिल शम्अ' साँ देखता हूँ

ताबिश देहलवी

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हर इक दाग़-ए-दिल शम्अ' साँ देखता हूँ
तिरी अंजुमन ज़ौ-फ़िशाँ देखता हूँ

तअ'य्युन से आज़ाद हैं मेरे सज्दे
जबीं पर तिरा आस्ताँ देखता हूँ

फ़रेब-ए-तसव्वुर है क़ैद-ए-क़फ़स है
हर इक शाख़ पर आशियाँ देखता हूँ

मैं राह-ए-तलब का हूँ पसमाँदा रह-रव
ग़ुबार-ए-रह-ए-कारवाँ देखता हूँ

ब-अंदाज़ा-ए-ज़ौक़-ए-ईज़ा-पसंदी
उसे आज मैं मेहरबाँ देखता हूँ

पिला कर मुझे महरम-ए-होश रक्खा
ये ए'जाज़-ए-पीर-ए-मुग़ाँ देखता हूँ

मिरी ज़िंदगी महरम-ए-ग़म है 'ताबिश'
नफ़स को ब-रंग-ए-फ़ुग़ाँ देखता हूँ