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हर हक़ीक़त को ब-अंदाज़-ए-तमाशा देखा | शाही शायरी
har haqiqat ko ba-andaz-e-tamasha dekha

ग़ज़ल

हर हक़ीक़त को ब-अंदाज़-ए-तमाशा देखा

जिगर मुरादाबादी

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हर हक़ीक़त को ब-अंदाज़-ए-तमाशा देखा
ख़ूब देखा तिरे जल्वों को मगर क्या देखा

जुस्तुजू में तिरी ये हासिल-ए-सौदा देखा
एक इक ज़र्रे का आग़ोश-ए-तलब वा देखा

आईना-ख़ाना-ए-आलम में कहें क्या देखा
तेरे धोके में ख़ुद अपना ही तमाशा देखा

हम ने ऐसा न कोई देखने वाला देखा
जो ये कह दे कि तिरा हुस्न सरापा देखा

दिल-ए-आगाह में क्या कहिए 'जिगर' क्या देखा
लहरें लेता हुआ इक क़तरे में दरिया देखा

कोई शाइस्ता-ओ-शायान-ए-ग़म-ए-दिल न मिला
हम ने जिस बज़्म में देखा उसे तन्हा देखा