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हर घड़ी मुझ को बे-क़रार न कर | शाही शायरी
har ghaDi mujhko be-qarar na kar

ग़ज़ल

हर घड़ी मुझ को बे-क़रार न कर

सहर महमूद

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हर घड़ी मुझ को बे-क़रार न कर
ज़िंदगी मेरी सोगवार न कर

जिस के साहिल का कुछ पता ही नहीं
ऐसी कश्ती को इख़्तियार न कर

बे-ख़ुदी मेरी बे-ख़ुदी न रहे
इतना एहसान ग़म-गुसार न कर

इस क़दर मुझ पे इलतिफ़ात-ओ-करम
मेरे मोहसिन तू शर्मसार न कर

पाक कर ले हवस से दिल पहले
कौन कहता है तुझ को प्यार न कर

अपने वा'दे का रख भरम ऐ दोस्त
किश्त-ए-उम्मीद रेग-ज़ार न कर

ख़ैर-ख़्वाही के नाम पर हरगिज़
मेरे ऐबों का इश्तिहार न कर

आदमी है तो आदमी ही रह
आदमियत को दाग़दार न कर

जो 'सहर' दिल से भूल बैठा हो
तज़्किरा उस का बार बार न कर