हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा
किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा
मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा
आइना देख के निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा
ग़ज़ल
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
निदा फ़ाज़ली