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हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए | शाही शायरी
har ghaDi chashm-e-KHaridar mein rahne ke liye

ग़ज़ल

हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए

शकील आज़मी

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हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
कुछ हुनर चाहिए बाज़ार में रहने के लिए

मैं ने देखा है जो मर्दों की तरह रहते थे
मस्ख़रे बन गए दरबार में रहने के लिए

ऐसी मजबूरी नहीं है कि चलूँ पैदल मैं
ख़ुद को गर्माता हूँ रफ़्तार में रहने के लिए

अब तो बदनामी से शोहरत का वो रिश्ता है कि लोग
नंगे हो जाते हैं अख़बार में रहने के लिए