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हर एक सम्त उदासी की तितलियाँ जागीं | शाही शायरी
har ek samt udasi ki titliyan jagin

ग़ज़ल

हर एक सम्त उदासी की तितलियाँ जागीं

नाज़ क़ादरी

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हर एक सम्त उदासी की तितलियाँ जागीं
तुलू-ए-शाम से पहले सियाहियाँ जागीं

सफ़र में धूप की लज़्ज़त पस-ए-ग़ुबार हुई
घने दरख़्तों के साए में गर्मियाँ जागीं

दयार-ए-दिल में सदाओं का आईना टूटा
नवाह-ए-जाँ में तअ'ल्लुक़ की किर्चियाँ जागीं

कहाँ कहाँ नहीं दी हम ने रात भर दस्तक
न कोई बाब ही चौंका न खिड़कियाँ जागीं

दिलों के बीच तो हाइल था बर्फ़ का मौसम
न जिस्म सुलगे न ख़्वाहिश की गर्मियाँ जागीं

लहू में लम्स के शो'ले बुलंद होने लगे
बदन में क़ुर्ब की पुर-शोर आँधियाँ जागीं

किसी से कम न हुआ 'नाज़' फ़ासला ग़म का
कि लोग जितना चले उतनी दूरियाँ जागीं