हर एक सम्त उदासी की तितलियाँ जागीं 
तुलू-ए-शाम से पहले सियाहियाँ जागीं 
सफ़र में धूप की लज़्ज़त पस-ए-ग़ुबार हुई 
घने दरख़्तों के साए में गर्मियाँ जागीं 
दयार-ए-दिल में सदाओं का आईना टूटा 
नवाह-ए-जाँ में तअ'ल्लुक़ की किर्चियाँ जागीं 
कहाँ कहाँ नहीं दी हम ने रात भर दस्तक 
न कोई बाब ही चौंका न खिड़कियाँ जागीं 
दिलों के बीच तो हाइल था बर्फ़ का मौसम 
न जिस्म सुलगे न ख़्वाहिश की गर्मियाँ जागीं 
लहू में लम्स के शो'ले बुलंद होने लगे 
बदन में क़ुर्ब की पुर-शोर आँधियाँ जागीं 
किसी से कम न हुआ 'नाज़' फ़ासला ग़म का 
कि लोग जितना चले उतनी दूरियाँ जागीं
        ग़ज़ल
हर एक सम्त उदासी की तितलियाँ जागीं
नाज़ क़ादरी

