हर एक रास्ते का हम-सफ़र रहा हूँ मैं
तमाम उम्र ही आशुफ़्ता-सर रहा हूँ मैं
क़दम क़दम पे वहाँ क़ुर्बतें थीं और यहाँ
हुजूम-ए-शहर से तन्हा गुज़र रहा हूँ मैं
पुकारा जब मुझे तन्हाई ने तो याद आया
कि अपने साथ बहुत मुख़्तसर रहा हूँ मैं
ये कैसी रिफ़अतें आईना-ए-निगाह में हैं
किसी सितारे पे जैसे उतर रहा हूँ मैं
मैं रौशनी ही की वहदानियत का क़ाइल हूँ
मोहब्बतों ही का पैग़ाम-बर रहा हूँ मैं
मैं शब-परस्त नहीं हूँ यही ख़ता है मिरी
अदा-शनास-ए-जमाल-ए-सहर रहा हूँ मैं
यहाँ बस एक नया तजरबा हुआ 'फ़ारिग़'
कि लम्हे लम्हे को महसूस कर रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
हर एक रास्ते का हम-सफ़र रहा हूँ मैं
फ़ारिग़ बुख़ारी