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हर एक रास्ते का हम-सफ़र रहा हूँ मैं | शाही शायरी
har ek raste ka ham-safar raha hun main

ग़ज़ल

हर एक रास्ते का हम-सफ़र रहा हूँ मैं

फ़ारिग़ बुख़ारी

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हर एक रास्ते का हम-सफ़र रहा हूँ मैं
तमाम उम्र ही आशुफ़्ता-सर रहा हूँ मैं

क़दम क़दम पे वहाँ क़ुर्बतें थीं और यहाँ
हुजूम-ए-शहर से तन्हा गुज़र रहा हूँ मैं

पुकारा जब मुझे तन्हाई ने तो याद आया
कि अपने साथ बहुत मुख़्तसर रहा हूँ मैं

ये कैसी रिफ़अतें आईना-ए-निगाह में हैं
किसी सितारे पे जैसे उतर रहा हूँ मैं

मैं रौशनी ही की वहदानियत का क़ाइल हूँ
मोहब्बतों ही का पैग़ाम-बर रहा हूँ मैं

मैं शब-परस्त नहीं हूँ यही ख़ता है मिरी
अदा-शनास-ए-जमाल-ए-सहर रहा हूँ मैं

यहाँ बस एक नया तजरबा हुआ 'फ़ारिग़'
कि लम्हे लम्हे को महसूस कर रहा हूँ मैं