हर एक लम्हा तबीअत पे बार है, क्या है
तुम्हारा ग़म कि ग़म-ए-रोज़गार है, क्या है
वो हम पे आज बहुत जल्वा-बार है क्या है
अब इस अदा में अदावत है, प्यार है, क्या है
सितम तो ये है कि इस अहद-ए-जब्र में भी यहाँ
मलूल है न कोई बे-क़रार है, क्या है
हज़ार रंग-ब-दामाँ सही मगर दुनिया
बस एक सिलसिला-ए-एतिबार है, क्या है
फ़ज़ा चमन की है ऐसी कि कुछ नहीं खुलता
ख़िज़ाँ की रुत है कि फ़स्ल-ए-बहार है, क्या है
सुना है रात तो कब की गुज़र गई लेकिन
हमें सहर का अभी इंतिज़ार है, क्या है
चमन हमारा है लेकिन चमन हमारा नहीं
न बेबसी न कोई इख़्तियार है, क्या है
बताए जाते हैं उनवाँ नए नए 'निकहत'
मगर तमाशा वही वही बार बार है, क्या है
ग़ज़ल
हर एक लम्हा तबीअत पे बार है, क्या है
निकहत बरेलवी