हर एक गाम पे हद हर क़दम दर-ओ-दीवार
फ़ज़ा-ए-शहर बनी बेश-ओ-कम दर-ओ-दीवार
यही थे सहन-ए-फ़ज़ा और यही घर आँगन था
तुम आए हो तो हुए मुहतशम दर-ओ-दीवार
हम अपने दर्द हवाओं से भी नहीं कहते
उठाए फिरते हैं ख़ुद अपने ग़म दर-ओ-दीवार
ये रेग-ज़ार है और इस की अपनी दुनिया है
यहाँ हमेशा रहे कम से कम दर-ओ-दीवार
हवा वतन की पलट आई बादबान के साथ
वही यहाँ भी फ़ज़ा आश्रम दर-ओ-दीवार
नज़र के आगे नहीं पर नज़र में ज़िंदा हैं
सकूल बस्ते घरौंदे क़लम दर-ओ-दीवार
गए जहाँ भी वहीं शहर बस गया 'एहसान'
अज़ल से अपने रहे हम-क़दम दर-ओ-दीवार

ग़ज़ल
हर एक गाम पे हद हर क़दम दर-ओ-दीवार
एहसान अकबर