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हर एक दर्द को हर्फ़-ए-ग़ज़ल बना दूँगा | शाही शायरी
har ek dard ko harf-e-ghazal bana dunga

ग़ज़ल

हर एक दर्द को हर्फ़-ए-ग़ज़ल बना दूँगा

ख़ुर्शीद अहमद जामी

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हर एक दर्द को हर्फ़-ए-ग़ज़ल बना दूँगा
चला तो हूँ कि तिरी रहगुज़र दिखा दूँगा

ग़म-ए-हयात मिरे साथ साथ ही रहना
पयम्बरी से तिरा सिलसिला मिला दूँगा

अगर वहाँ भी तिरी आहटें न सुन पाऊँ
तो आरज़ू की हसीं बस्तियाँ जला दूँगा

न इंतिज़ार न आहें न भीगती रातें
ख़बर न थी कि तुझे इस तरह भुला दूँगा

कुछ और तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म सही 'जामी'
कुछ और अपने चराग़ों की लौ बढ़ा दूँगा