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हर एक चीज़ मयस्सर सिवाए बोसा है | शाही शायरी
har ek chiz mayassar siwae bosa hai

ग़ज़ल

हर एक चीज़ मयस्सर सिवाए बोसा है

सय्यद काशिफ़ रज़ा

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हर एक चीज़ मयस्सर सिवाए बोसा है
और अपने ग़म का सबब इल्तवा-ए-बोसा है

भले तो लगते हैं इंकार-ए-बोसा पर भी ये होंट
कभी तो ये कहो ''ये लब बराए बोसा'' है

मिरे क़रीब से होंटों को मत गुज़ार इतना
कि चल रही मिरे सर में हवा-ए-बोसा है

छुपाया कर नहीं होंटों को मुस्कुराते हुए
ये जा-ए-शर्म नहीं है ये जा-ए-बोसा है

लब-ए-ख़मोश पे भी है मिरे ही काम का हर्फ़
मिरी मुराद ये भी है जो पा-ए-बोसा है

समझ में कुछ नहीं आता कि बोलती हो क्या
लबों पे खेलती फिरती निदा-ए-बोसा है

यही न छोड़ के जा तिश्ना-काम होंटों पर
कि ये तो बोसा-ए-सहव-ए-क़ज़ा-ए-बोसा है

तुम्हारी ख़ुश-दहनी से है अस्ल में सरोकार
ये लब का बोसा तो बस इब्तिदा-ए-बोसा है

बस एक बोसा-ए-सुब्ह और एक बोसा-ए-शाम!
फ़क़ीर-ए-बोसा हूँ और इल्तिजा-ए-बोसा है

लबान-ए-बोसा-चशीदा भी ख़ूब हैं लेकिन
निगह में एक बुत-ए-नाख़ुदा-ए-बोसा है