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हर-चंद अपने अक्स का दिल दर्दमंद हो | शाही शायरी
har-chand apne aks ka dil dardmand ho

ग़ज़ल

हर-चंद अपने अक्स का दिल दर्दमंद हो

सुल्तान अख़्तर

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हर-चंद अपने अक्स का दिल दर्दमंद हो
आईने के लबों पे अगर ज़हर-ए-ख़ंद हो

बे-मेहर आफ़्ताब का दरवाज़ा बंद हो
आँधी ज़रा थमे तो घटा सर-बुलंद हो

हर लम्हा उस की मदह-सराई न कीजिए
मुमकिन है ऐसी बात उसे ना-पसंद हो

हर गाम हौसलों का यही मुद्दआ' रहा
गुमराह ज़िंदगी की मसाफ़त दो-चंद हो

'अख़्तर' मैं इख़्तिलाफ़ का क़ाइल नहीं मगर
अहबाब का मिज़ाज ही जब शर-पसंद हो