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हर आइने ने कहा रुख़्सत-ए-ग़ुबार के बा'द | शाही शायरी
har aaine ne kaha ruKHsat-e-ghubar ke baad

ग़ज़ल

हर आइने ने कहा रुख़्सत-ए-ग़ुबार के बा'द

रईस नियाज़ी

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हर आइने ने कहा रुख़्सत-ए-ग़ुबार के बा'द
यहाँ तो कुछ भी नहीं है जमाल-ए-यार के बा'द

ज़माना ज़ेर-ए-नगीं था रज़ा-ए-यार के बा'द
वो इख़्तियार मिला तर्क-ए-इख़्तियार के बा'द

ये मानता हूँ अदब शर्त-ए-इश्क़ है लेकिन
ये होश किस को रहेगा निगाह-ए-यार के बा'द

परों से मुँह को छुपा कर क़फ़स में आ बैठा
चमन का हाल न देखा गया बहार के बा'द

तिरे जमाल को समझे तिलिस्म ग़ुंचा-ओ-गुल
फ़रेब खाए बहुत हम ने ए'तिबार के बा'द

वो जाम जाम नहीं हासिल-ए-दो-आलम है
जो दस्त-ए-शौक़ में आया है इंतिज़ार के बा'द

ग़म-ए-फ़िराक़ की मंज़िल 'रईस' ख़त्म हुई
अब आगे जल्वे ही जल्वे हैं हिज्र-ए-यार के बा'द