हक़ीक़तों का नई रुत की है इरादा क्या
कहानियों ही में ले साँस शाहज़ादा क्या
ये रंग-ज़ार है अपना परों पे तितली के
धनक हो ख़ुद में तो फूलों से इस्तिफ़ादा क्या
मोहब्बतों में ये रुस्वाइयाँ तो होती हैं
शराफ़तें तिरी क्या मेरा ख़ानवादा क्या
अगर वो फेंक दे कश्कोल अपने विर्से का
तो इस जहाँ में करे भी फ़क़ीर-ज़ादा क्या
ज़िदें तो शान हुआ करती हैं रईसों की
जो चौथी सम्त न जाए वो शाहज़ादा क्या
ये मेरे नक़्श ये मेरी शराफ़तें 'अज़हर'
अब और चाहिए इस से मुझे ज़ियादा क्या
ग़ज़ल
हक़ीक़तों का नई रुत की है इरादा क्या
अज़हर इनायती